Badi Maa - 1 in Hindi Fiction Stories by Kishore Sharma Saraswat books and stories PDF | बड़ी माँ - भाग 1

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बड़ी माँ - भाग 1

बड़ी माँ

‘हमारी पृथ्वी सौर-मण्डल का एक बहुत ही विचित्र ग्रह है। इसकी संरचना भगवान ने मानो स्वयं अपने हाथों से प्राणी जगत की उत्पति एवं उत्थान हेतु की है। इस ग्रह की सुन्दर संरचना में प्रकृति भी पीछे नहीं रही है। कहीं विशाल पहाड़ हैं तो कहीं पत्थरीले पठार और कहीं मनमोहक सुन्दर घाटियाँ हैं, जिनके आंचल में दूर-दूर तक फैले अनेकों छोटे-बड़े हरे-भरे मैदान हैं। यही नहीं, पृथ्वी का कोई भाग तो सर्द हवाओं के थपेड़ों से ठिठुर रहा है और कहीं पर तपते रेगिस्तान की गर्मी अपने आगोश में आई हर वस्तु को झुलसा रही है, तो कहीं समुद्र की लहरें घोर गर्जना के साथ मानव को अपनी प्रत्यक्षतः तथा महान  शक्ति का उद्बोधन करा रही हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी मनुष्य प्रकृति पर विजय पाने की अपनी लालसा और हठ पर अड़िग है। धरती का शायद ही कोई हिस्सा, चाहे कितना भी दुर्गम क्यों न हो, शेष रहा हो जहाँ पर मनुष्य ने अपने पाँव न पसारे हों। और यह प्रकृति की एक अजीब विडंबना भी है कि प्रत्येक प्राणी को वही स्थान सब से अच्छा लगता है जहाँ पर वह पैदा हुआ और पला-बढ़ा है।

                क्या तुम जानती हो? मैं भी इस धरती पर पैदा हुए प्राणियों में से एक हूँ। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि मेरे विचार और भावनाएं भी कुछ ऐसी ही होंगी। मुझे भी उस मिट्टी से स्नेह और लगाव है जिस पर अपनी माता जी की कोख से जन्म लेकर मैंने सूर्य की प्रथम किरण को निहारा होगा। इसलिए मेरे मन में भी उस पवित्र स्थान को देखने की तड़फ हमेशा बनी रहती है। तुम सुन रही हो न, मैं क्या कह रहा हूँ?’

‘जी हाँ, मैं सब सुन रही हूँ।’

‘बिल्कुल झूठ, एक दम कोरी गप्प।’

‘नहीं जनाब, मैंने सब कुछ सुना है।’

                 ‘अच्छा! अगर सुना है तो इतना लम्बा-चौड़ा भाषण सुनने के बाद भी तुम चुप क्यों हो?’  

‘मैं इसलिए चुप हूँ कि आत्मा से निकला प्रत्येक शब्द मोतियों की तरह विशुद्ध और सच्चा होता है। मैं बीच में बोलकर उन्हें मैला नहीं करना चाहती थी।’

                ‘वाह! मेरी जान, तुम तो उस पारखी को भी दस कदम पीछे छोड़ गई हो जो कसौटी से सोने की शुद्धता को परखता है।’

‘कोई शक है?  यह सब आपकी संगत का असर ही तो है।’

                ‘सच।’

                ‘जी हाँ।’

                ‘मैं नहीं मानता।’

                ‘क्यों?’

‘क्योंकि तुम मेनका से भी ज्यादा सुन्दर हो, जिसे राजा इंद्र ने ऋषि विश्वामित्र जी की तपस्या भंग करने के लिए पृथ्वी लोक पर भेजा था। इसलिए मुझे सुंदर स्त्रियों की मंशा पर कुछ संदेह होने लगता है।’

‘आप फिकर मत करो। मैं आपका सिंहासन डोलने वाली नहीं हूँ। हाँ, अगर आप स्वयं ही डोल गए तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं होगा। जनाब, जरा सम्भल कर रहना। मुझे आज आपकी नीयत ही कुछ डावाँडोल लग रही है।’

                यह बात मुँह से क्या निकली कि दोनों खिलखिलाकर हँसने लगे। लाख कोशिश करने पर भी हँसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। वे जब भी एक-दूसरे की और देखते तो हँसी स्वाभाविक रूप से होंठों पर आनी शुरू हो जाती थी और वे उसे रोक नहीं पा रहे थे।

                हँसी-मजाक की इन बातों के साथ-साथ जीप राजगढ़ के रिजर्वड फारेस्ट की कच्ची सड़क पर धूल उड़ाती चली जा रही थी। नई-नई शादी हुई थी, इसलिए प्रकृति के स्वच्छ और मनमोहक पथ से गुजरना आज उनके पवित्र बंधन को प्रेम की एक नई परिभाषा का पाठ लग रहा था। बात ही कुछ ऐसी थी। हरा-भरा जंगल, अपने विशाल वृक्षों के साथ दूर-दूर तक फैला हुआ। जंगल के ठीक मघ्य में एक नदी बह रही थी, जिसके किनारे से होकर सड़क पहाड़ की तलहटी की ओर जाती थी। यूँ तो नदी के दोनों ओर वाले पहाड़ भी रिजर्वड फारेस्ट का ही हिस्सा थे, परन्तु सड़क केवल पहाड़ की तलहटी के समीप बने डाक बंगले तक ही जाती थी। डाक बंगला काफी पुराना था। शायद किसी अंग्रेज अधिकारी ने अपने लिए विश्राम स्थल के रूप में बनवाया था। कुल मिलाकर इसमें दो बैड रूम, एक लॉबी, एक रसोई घर तथा छोटा सा स्टोर था। डाक बंगले के पिछवाड़े की ओर एक-एक कमरे के दो सर्वेन्ट रूम बनाए गए थे, जिनके आगे अब सरकंडे के छप्पर डालकर अतिरिक्त जगह बना ली गई थी। जगह बहुत ही सुन्दर थी। नदी के नजदीक वाले समतल स्थान को थोड़ा छोड़कर एक छोटे से टीले की चोटी पर यह डाक बंगला बनवाया गया था। टीले के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे सफेदे के वृक्ष थे तथा ढलान पर जंगली जानवरों से बचाव के लिए कांटेदार तार की मजबूत बाड़ लगाई हुई थी। सड़क के मुहाने की ओर लोहे का एक भारी गेट लगा हुआ था। जिसे केवल आने और जाने के समय ही खोला जाता था। प्रकृति की मनोहर छटा देखने के लिए लॉन में सीमेंट के बैंच बनाए हुए थे, ताकि उन पर बैठकर गर्मियों में वृक्षों की छाया और हवा का आनन्द लिया जा सके और सर्दियों में धूप का आनन्द उठाया जा सके। छोटी-छोटी क्यारियों में मन को लुभाने वाले फूल हर मौसम के अनुसार वहाँ पर हमेशा लगे मिलते थे। यही एक कारण था कि हर सरकारी अधिकारी अपने फुर्सत के क्षण यहाँ पर बिताना अधिक पसंद करता था।

डाक बंगले की देखभाल का जिम्मा अब जंगलात विभाग के पास था। कुल मिलाकर तीन कर्मचारियों का स्टाफ था। एक रामू चौकीदार, जिसे सभी लोग प्यार से रामू काका के नाम से पुकारते थे। एक माली और एक पार्ट-टाइम सफाई कर्मचारी। चैंकीदार और माली, वहीं पर बने क्वाटर्ज में रहते थे और सफाई कर्मचारी प्रतिदिन साइकिल पर अपने गाँव से आता था और अपना काम निपटाने के पश्चात् वापस चला जाता था। रामू काका चैंकीदारी के अतिरिक्त खाना बनाने का काम भी किया करता था। वह इस काम से खुश भी था, क्योंकि इस की वजह से उसे घर पर अलग से खाना नहीं बनाना पड़ता था और साथ में मेहमान लोग अच्छी खासी टिप भी दे जाते थे। इसलिए रामू काका की एक आदत बन चुकी थी, वह सुबह नहा-धोकर धूप-बत्ती करता और साथ में परमात्मा से यह प्रार्थना भी करता था कि आज डाक बंगले में कोई न कोई मेहमान जरूर आए। इसके पीछे, खाने पीने और टिप के अतिरिक्त, एक स्वार्थ और भी था। माली का परिवार तो उसके साथ ही रहता था, परन्तु रामू काका अकेला था और वह एक छोटी उम्र के भूत से बहुत डरता था। मेहमानों के आने से उसे एक सहारा और मिल जाता था।

आज सुबह से किसी मेहमान के आने की खबर नहीं थी। रामू काका बाहर बैंच पर कुछ निराश सा हुआ बैठा धूप सेक रहा था। सर्दियों के दिन थे, धूप ढल चुकी थी और ठण्ड भी बढ़ने लगी थी। परन्तु रामू काका किसी के आने की आस लगाए गेट की ओर अपनी पत्थराई नज़रों से बार-बार देख रहा था। शायद यह उसकी दुआओं का असर ही था कि ठीक चार बजे एक जीप गेट के पास आकर रुकी। काका की बांछें खिल उठी। वह भागता हुआ गेट के पास पहुँचा। गेट खोलते ही उसने अपने चिर-परिचित अंदाज में सैल्यूट ठोका और फिर गेट की कुण्डी लगाए बगैर ही सामान उठाने के लिए जीप के पीछे-पीछे भागने लगा। रामू काका के नाम की मशहूरी डिवीजनल फारेस्ट आफिस में भी फैल चुकी थी। अतः जब भी किसी के नाम परमिट जारी किया जाता तो उसे किसी ब्रांड वस्तु के टेग की तरह रामू काका का नाम भी बता दिया जाता था।

                आज भी नाम की मशहूरी रंग लाई। जीप से उतरते ही उस खूबसूरत नौजवान अधिकारी ने तपाक से पूछाः

‘तुम रामू काका हो?’

‘जी साहिब!’ रामू काका ने अदब से जवाब दिया।

‘ऐसा करो, यह सामान उठाकर कमरे में रख दो।’

‘ठीक है साहिब।‘ कहकर रामू काका दोनों ब्रीफ़केस और बैग उठाकर कमरे में रखने के लिए डाक बंगले के अंदर चला गया। सामान रखकर बाहर आया तो हैरान था, पति-पत्नी दोनों कमरे में जाने की अपेक्षा बाहर बाऊँडरी के पास खड़े होकर नदी की ओर देखते हुए कुछ बातें कर रहे थे। रामू काका ने तीन गिलास ट्रे में रख कर उनमें पानी डाला और फिर कुछ संकोच से धीरे-धीरे चलते हुए थोड़ी दूर से ही बोलाः

‘साहिब, पानी।’

‘ठीक है, लाओ।’ साहिब ने रामू काका की ओर इशारा करते हुए कहा।

गिलास उठाकर दोनों ने पानी के दो-दो घूँट पीये और फिर उन्हें उसके हाथ में पकड़ी ट्रे में रख दिया। रामू काका फिर धीरे से पूछने लगाः

‘साहिब, कॉफ़ी या चाय, क्या लेंगे आप?’

‘क्या लेने की इच्छा है?’ उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा।

‘जो तुम्हारी इच्छा।’ वह बोली।

‘ठीक है। रामू काका जो पिलाना चाहते हो बना लाओ।’ वह बोला।

साहिब की मधुर आवाज के लहजे को देखते हुए रामू काका का हौसला कुछ बुलंद हुआ। कभी-कभी उनकी तरह का कोई अच्छा अधिकारी आता था जो रामू काका को उसकी उम्र के लिहाज से सम्मान देता था, वरना अपनी चालीस साल की नौकरी में अनावश्यक  गुस्सा और डांट-डपट झेलते-झेलते उसका शरीर आधा हो चुका था। आज उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा था। उसे यकीन नहीं हो पा रहा था कि इस कम उम्र और ऊँचे औहदे वाला अधिकारी, जिसकी पत्नी भी साथ में हो, इतने मृदु स्वभाव से उससे बात करेगा। मन में खुशी तो थी ही, आज उसके हाथ भी कमाल कर रहे थे। इतने प्रेम से कॉफ़ी बनाई की पीने वाला मस्त हो जाए। रामू काका ने कॉफ़ी प्यालों में डाली और फिर उन्हें ढाँप दिया। दो कुर्सियाँ व एक छोटा टेबल उठाकर बाहर लॉन में रखने के बाद वह कॉफ़ी की ट्रे लेकर आया और बोलाः

‘साहिब, कॉफ़ी।’

                उन्होंने मुड़कर रामू काका की ओर देखा जो कॉफ़ी और बिस्कुट टेबल पर रखकर चलने लगा था। उसे जाते देखकर साहिब ने आवाज लगाईः

‘रामू काका! इधर आओ।’

‘जी साहिब।’ वह मुड़कर बोला।

‘नदी किनारे जो वो खंडहर नज़र आ रहे हैं, तुम इनके बारे में क्या कुछ जानते हो?’

‘जी साहिब, सब कुछ जानता हूँ। मेरी यहाँ पर चालीस साल की नौकरी हो गई है। यह हादसा सब कुछ मेरी आँखों के सामने ही हुआ था।’

‘अच्छा।’ यह कहते हुए साहिब और उनकी बीवी कॉफ़ी लेने के लिए कुर्सियों की ओर चल पड़े। उन्होंने बैठकर जैसे ही कॉफ़ी की एक चुश्की ली तो बोल पडे़:

‘वाह काका! तुम्हारे हाथ में तो जादू है। इतनी स्वादिष्ट कॉफ़ी तो आज पहली बार पी रहा हूँ। कहाँ से सीखा है यह हुनर?’

अपनी तारीफ़ सुनकर रामू काका फूलकर कुप्पा हो गया। उसकी झुकी हुई कमर मानो सीधी हो गई। मुस्कुराता हुआ बोलाः

‘साहिब यह मेरा चालीस साल का तजरबा है। बहुत सारे बड़े लोगों की सेवा कर चुका हूँ।’

‘वेरी गुड। अच्छा, तुम्हारी वो बात तो अधूरी ही रह गई। क्या हादसा हुआ था वहाँ पर?’

‘साहिब, क्या बताऊँ? बताते हुए भी मन काँपता है। जब भी बीती हुई उस घटना की याद आती है तो दुःख और भय से शरीर सिहर उठता है। बडी ही दर्दनाक दास्तान है साहिब। न ही पूछो तो बेहतर होगा।’ रामू काका अब कुछ खुलने लगा था।

‘कोई बात नहीं, घबराओ मत। बताओ क्या हुआ था? मैं उस घटना के बारे में विस्तार से जानना चाहता हूँ। आप खड़े मत रहिए। यहाँ बैठ जाओ।’ वह रामू काका को बैंच पर बैठने का इशारा करते हुए बोले।

‘नहीं साहिब, मैं यहीं पर ठीक हूँ।’ रामू काका उनके सामने बैठना उचित नहीं समझ रहा था।

‘भैया, घबराने वाली कोई बात नहीं है। आराम से बैठ जाओ और फिर बताओ।’ वह बोले।

रामू काका न चाहते हुए भी बैंच पर बैठ गया। मैडम आज साहब के इस विचित्र व्यवहार से हैरान सी लग रही थी। समझ नहीं पा रही थी कि आखिर इस बूढे़ चैकीदार से यह क्या जानना चाहते हैं? वह धीरे-धीरे अपनी पूरी कॉफ़ी खत्म कर चुकी थी, परन्तु साहिब तो बातों में व्यस्त थे और उनकी प्याली में बची शेष कॉफ़ी ठण्डी हो चुकी थी। सूरज ढलने लगा था, इसलिए ठंडक बढ़ने लगी थी। मैडम को मौसम का मिज़ाज अच्छा नहीं लग रहा था। अतः वह आराम करने के लिए कहकर अंदर चली गई। मैडम के चले जाने के पश्चात् साहिब फिर बोलेः

‘हाँ तो काका बताओ, क्या हुआ था?’

रामू काका ने ऊँह-ऊँह करके अपना गला साफ़ किया और फिर थोड़ा सोचने के बाद बताने लगाः

‘साहिब, वो जो आप मकानों के खँडहर देख रहे थे न, वह पहले जंगलात महकमे के क्वाटर्स हुआ करते थे। इस जंगल में शिकारियों और लकड़ी के तस्करों की भरमार हुआ करती थी। साहिब, जंगल का बहुत नुकसान किया करते थे वो लोग। बड़े ही खतरनाक किस्म के भेड़िये थे वो आदमी के चोले में। यहाँ तक की महकमे के कर्मचारी भी जंगल में जाने से बहुत घबराते थे। इसलिए इस समस्या पर काबू पाने के लिए जंगलात महकमे द्वारा यहाँ रेंज अफसर और  कुछ मताहत कर्मचारियों के क्वाटर्स बनवाए गए थे, ताकि जंगल की हिफ़ाजत ठीक प्रकार से हो सके। यहाँ के रेंज अफसर बहुत ही सज्जन और दयालु प्रवृत्ति के हुआ करते थे। उन्हें हर वक्त अपने काम की लगन लगी रहा करती थी। परन्तु ऐसा नहीं था कि वह औरों का ध्यान नहीं रखते थे। अपने मताहत हर कर्मचारी के सुख-दुःख में वह बराबर शरीक हुआ करते थे। बहुत ही भले अफसर थे। उनका नाम था..............याद नहीं आ रहा..............नाम था.............हाँ याद आया, उनका नाम था लाला दीवान चन्द जी। सभी लोग उन्हें अदब से लाला जी कहकर बुलाते थे। उनकी पत्नी भी साक्षात किसी देवी का स्वरूप लगती थी। दोनों धर्म-कर्म के कामों मे बहुत रुचि रखते थे और बुराई, बुराई तो उन्होंने कभी भी किसी की सोची तक नहीं थी। परन्तु परमात्मा ने पता नहीं उनसे उनके पिछले जन्म के कर्मों का बदला लेना था। साहिब बहुत बुरा हुआ उनके साथ।’ यह कहते हुए रामू काका कुछ भावुक सा हो गया। उसे देखकर साहिब बोलेः

‘क्या हुआ था?’

अपनी आँखों में आए आँसूओं को अपने दाएं हाथ के अंगूठे और अंगुलियों से पोंछने के बाद रामू काका फिर बताने लगाः

‘साहिब, शादी के कईं साल बाद तक उनके कोई संतान नहीं हुई थी। बेचारे अपने मन का बोझ दूसरों के बच्चों की सहायता करके हल्का किया करते थे। गरीब बच्चों को कपड़े देते, किताबें खरीदकर देते और कई बार उनकी स्कूल की फीस भी दिया करते थे। लाला जी तो इसी में खुश थे, परन्तु महिला का दिल तो आखिर महिला का दिल ही होता है। उनकी पत्नी की इच्छा थी कि बच्चे के लिए एक बार तीर्थों के दर्शन भी कर लिए जाएं। अगर प्रभु की इच्छा हुई तो शायद वह उनका सूना आँगन भी महका दे। लाला जी ने तो कभी किसी का दिल दुखाया नहीं था, तो पत्नी को कैसे मायूस करते। बस, पती-पत्नी दोनों तीर्थ दर्शन पर चले गए। प्रभु की ऐसी कृपा हुई कि उनके यहाँ एक साल बाद ही बहुत ही सुंदर पुत्र ने जन्म लिया। जिस-जिस को भी पता चला सभी लोग बहुत खुश हुए। बच्चा सुंदर तो था ही, परन्तु नटखट भी बहुत था। तीन-चार साल का हुआ होगा तो लाला जी कहने लगे कि यहाँ पर तो पढ़ाई का कोई अच्छा साधन है नहीं, इसे तो मैं शहर के किसी अच्छे बोर्डिंग स्कूल में डालूँगा। जबकि उनकी पत्नी इस हक में नहीं थी। वह तो बच्चे को एक पल के लिए भी अपनी आँखों के ओझल नहीं होने देना चाहती थी। कई बार तो लाला जी उसे मजाक में कह भी देते थे कि तुम तो, मुझे लगता है, इसे अनपढ़ ही रखोगी। बेचारी हँसकर चुप हो जाती।’ यह कहकर रामू काका कुछ सोचने लगा।

‘तो क्या उस लड़के को बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने के लिए डाल दिया गया था?’ साहब ने आगे पूछा।

                ‘नहीं साहब, नहीं। परमात्मा को तो कुछ और ही मंजूर था। कोई पच्चीस-छब्बीस साल पहले की बात है। जून महीने के आखरी दिन थे। धूप खूब चमक रही थी। कोई इक्का-दुक्का बादल ही आकाश में कभी-कभी घूमते हुए नज़र आ रहे थे। गर्मी की वजह से कईं लोग अपने क्वाटरों में दुबके पड़े थे। शाम के वक्त जब सूरज ढलने लगा तो बच्चे रोज की तरह नदी के किनारे खेलने के लिए निकले। लाला जी का लड़का, जिसे सभी प्यार से देव कहते थे, उम्र में सब से छोटा था। परन्तु जैसा कि मैंने पहले अर्ज की है वह बहुत ही नटखट था। एक तितली के पीछे भागता हुआ नदी में काफी दूर तक निकल गया। बच्चे अपने खेल में मस्त थे, इसलिए किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं गया। केवल एक बच्चे ने जो उससे थोडा सा बड़ा था, बताया था कि वह तितली पकड़ने के लिए उसके पीछे-पीछे भाग रहा था।’

‘वो नदी में कैसे गया? क्या नदी में पानी नहीं था?’ उन्होंने रामू काका से प्रश्न किया।

‘नहीं साहिब, मैंने अर्ज की न कि जून का महीना था। गर्मियों में नदी सूख जाती थी। थोड़ा बहुत जो पानी होता था उसे पहाड़ों में लोग नदी किनारे बने अपनें खेतों को सींचने के लिए रोक लेते थे। पहाड़ों से गुजरने के बाद तो इधर नदी गर्मियों में तो सूखी ही होती है।’

                अब अंधेरा हो चला था तथा सर्दी भी बढ़ने लगी थी। रामू काका बोलते हुए इधर-उधर भी देखे जा रहा था। ऐसा लग रहा था मानो वह अब बाहर ज्यादा देर बैठना नहीं चाहता था। उसे एक प्रकार से बेचैनी सी हो रही थी। उसकी बेचैनी का कारण एक जंगली जानवर भी था, जो दूर पहाड़ पर बडे़ जोर-जोर से आवाज निकाल रहा था। साहब ने उसकी बेचैनी को भांप लिया था। अतः वह मन ही मन सोच रहे थे कि शायद इसे सर्दी महसूस हो रही है। वह रामू काका से बोलेः

‘लगता है सर्दी तुम्हे परेशान कर रही है?’

‘जी साहिब, नहीं साहिब।’ रामू काका की जुबान सच्चाई को छुपाते हुए लड़खड़ा गई।

‘चलो अंदर चलते हैं।’ कहकर साहब खडे़ हो गए। रामू काका ने भागकर दरवाजा खोला और उसे पकड़कर वहीं पर खड़ा हो गया। साहब ने अंदर जाकर कमरे में झांका, मैडम को थकावट की वजह से नींद आ गई थी। वह वापस मुड़कर लॉबी में आ गए और सोफे पर बैठ गए। रामू काका हाथ जोड़कर बोलाः

‘साहिब, चाय बनाऊँ?’

‘नहीं, अब चाय नहीं लूँगा। तुम बैठो और मुझे आगे की बात बताओ।’ वह रामू काका को बैठने का इशारा करते हुए बोले।

रामू काका नीचे बैठने लगा तो साहब बोलेः

‘अरे भैया! नीचे क्यों बैठते हो? ऐसे तो तुम्हें सर्दी लग जाएगी। बैठने के लिए कोई चीज नीचे रख लो। घबराने की कोई बात नहीं है।’

‘ठीक है साहिब।’ कहकर रामू काका बिस्तर की एक पुरानी चादर उठाकर ले आया और उसे अपने नीचे रख कर बैठ गया।

‘हाँ तो बच्चा तितली के पीछे भाग रहा था। फिर उसके बाद क्या हुआ?’ साहब ने बात को आगे बढ़ाने का इशारा किया।

रामू काका ने अपने मुँह में इकट्ठी हुई लार को अपने गले के नीचे उतारा। अपनी आँखों की पलकें ऊपर-नीचे झपकाई और फिर अपने नीचले होंठ को दाँतों के बीच में दबाकर कुछ सोचने लगा मानो किसी पुरानी घटना को याद करने की कोशिश कर रहा हो। उसने फिर साहब की ओर देखा और आगे की बात बताने लगाः

‘साहिब, उस दिन नदी के ऊपरी सिरे की ओर पहाड़ों पर बहुत बारिश हुई थी। लोगों ने बाद में बतलाया था कि सुबह से ही भारी मात्रा में पानी बरसना शुरू हो गया था। कुछ चश्मदीद लोग तो यह भी बताते हैं कि उस दिन पहाड़ों पर दिन के समय बादल फटा था और पहाड़ से मिट्टी और चट्टानें खिसकने की वजह से एक तंग मुहाने पर नदी का बहाव रुक गया था और पीछे एक बड़ी झील बन गई थी। दुपहर बाद जब यह झील टूटी तो नदी में पानी का बहाव एक विशाल और विकराल रूप धारण करता हुआ अपने साथ जो कुछ भी रास्ते में आगे आया बहा ले गया। परन्तु नदी के मैदानी भाग में इस त्रासदी का किसी को कुछ भी पता नहीं चला, जब तक कि विनाशलीला का तांडव उनके सामने नहीं आ गया। साहिब उस महाविनाश की तस्वीर जब आँखों के सामने आती है तो दिल काँप उठता है।

रामू काका अभी यह बात कह ही रहा था कि डाक बंगले के पिछवाड़े थोड़ी दूर पर एक सियार ने हूँ....ऊँ की आवाज निकाली। रामू काका डर की वजह से घबरा गया और उसकी घिग्घी सी बंध गई। उसकी हालत देखकर साहब ने पूछाः

‘क्या बात हो गई? तुम घबरा क्यों रहे हो?’

’साहिब, भूत! आपने आवाज नहीं सुनी? यह उसी छोटे बच्चे का भूत है। यह रोज रात को इन खँडहरों और आस-पास के जंगलों में भटकता रहता है। मैं तो पिछले लगभग पच्चीस सालों से इसकी आवाजें सुन रहा हँू। साहिब, सच पूछो तो बहुत डर लगता है। पापी पेट का सवाल न होता तो अब तक नौकरी छोड़कर अपने गाँव चला जाता।’

                रामू काका की बात सुनकर साहब जोर से हँसे। अपनी इस बेबसी पर उन्हें यूँ हँसते देखकर रामू काका को ऐसा लगा मानो वह डाक बंगले का चैकीदार न होकर किसी सर्कस का जोकर हो। परन्तु क्या कर सकता था? अपनी बेबसी की आह अपने सीने के भीतर ही दबाकर रह गया। साहब उसे थोड़ा ढांढस बंधाते हुए बोलेः

‘रामू काका, तुम इतने बड़े हो गए हो, क्या तुमने कभी अपनी आँखों से भूत को देखा है?’

                ‘नहीं साहिब, मैंने उसे कभी नहीं देखा। कहते हैं वह काली परछाई की तरह होता है, दिखाई नहीं देता। वह वो बस कभी बिल्ली बनकर और कभी कोई दूसरा जानवर बनकर डराता है। मैं तो अब तक केवल उसकी आवाजें ही सुनता चला आ रहा हूँ।’

                ‘तुम फिक्र मत करो। मेरे होते हुए यह भूत किसी का कुछ बिगाड़ने वाला नहीं है। मैंने बहुत सारे भूत ठीक कर दिए हैं। वे भी शहरों के। ये तो बेचारे जंगली भूत हैं। इन्हें दुनिया में आए बदलाब का अभी क्या पता है?’

                ‘सच? साहिब, क्या शहरों में भी भूत होते हैं। वो दिन में कहाँ रहते हैं और क्या खाते हैं? आपने उन्हें कहाँ पर देखा है?’ रामू काका को आज एक नई बात का पता चल गया, इसलिए उसने बड़ी उत्सुकता से यह प्रश्न किया।

                ‘काका, शहरी भूत ध्यान से देखने पर प्रत्येक शहर के हर कोने में मिल जाएंगे। वह किसी दूकान में बैठे मिल जाएंगे, दफ्तर की कुर्सी पर भी मिल सकते हैं, रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर घूमते हुए भी मिल सकते हैं। बस यूँ समझलो शहर के हर पेशे में कोई न कोई  भूत जरूर मिल जाएगा। रही बात कि वो क्या खाते हैं? खाते नहीं वे सरेआम आदमी का खून पीते हैं। मैंने अपने दफ्तर में ऐसे कई भूतों को ठीक किया है और अब वे भूत का चोला छोड़कर आदमी बनकर काम करने लगे हैं।’ साहब ने रामू काका के प्रश्न का उत्तर दिया।

                बात सुनकर रामू काका तो हैरान सा हो गया। सोचने लगा भूत निकालने वाले सयाने तो अजीब से लोग होते हैं। उनकी शक्ल और वेशभूषा देखकर तो आम आदमी को डर लगता है। यह तीस साल का सुन्दर नौजवान, वह भी एक बड़ा अफसर, कैसे भूतों को ठीक कर सकता है? उसे शक हुआ कि शायद वह उसका दिल रखने के लिए झूठ बोल रहा हो। अपने मन में उठी शंका को दूर करने के लिए रामू काका ने फिर प्रश्न कियाः

                ‘साहिब, यदि आप सचमुच में भूतों को ठीक कर सकते हो तो हमारे यहाँ के इस भूत को भी ठीक कर दीजिए। मैं तो इतने सालों से इसके डर के मारे शरीर से भी आधा रह गया हूँ। आपकी बहुत बड़ी कृपा होगी साहिब।’ रामू काका खड़ा होकर हाथ जोड़ता हुआ गिड़गिड़ाकर बोला।

                ‘काका, आराम से नीचे बैठ जाओ। यह कोई बड़ी बात नहीं है। कल दोपहर के खाने के पश्चात् जब मैं वापस जाऊँगा तो तुम्हारे इस भूत को भी अपने साथ जीप में बैठाकर शहर ले जाऊँगा और फिर ये तुम्हें जिंदगी भर कभी भी परेशान नहीं करेगा। ठीक है? अब तो तुम खुश हो न?’

‘जी साहिब, मैं तो आपका यह एहसान पूरी उम्र तक नहीं भूलूँगा।’ रामू काका फिर हाथ जोड़ता हुआ बोला।

‘कोई बात नहीं, तुम चिंता मत करो। मैंने कह दिया न अब तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है। अब तुम मुझे आगे की बात बताओ। शाबाश! बैठ जाओ।’ साहब ने उसे बैठने का इशारा किया।

रामू काका नीचे बैठ गया और फिर आगे की बात सुनाने लगाः

                ‘साहिब, नदी में अचानक आई बाढ़ का तभी पता चला जब पानी ने आकर मकानों की चारदीवारी को टक्कर मारी। एकदम शोर मच गया। नदी के किनारे खेलने वाले बडे़ लड़के इस पहाड़ी की ओर भाग आए। महकमे के लोग भी अपना सामान ज्यों का त्यों छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए इस तरफ भाग आए। परन्तु वह छोटा बच्चा उस जालिम बाढ़ में बह गया। पहले तो किसी को इस बात का पता ही नहीं चला। परन्तु जब बच्चों की ओर उनका ध्यान गया तो देव कहीं भी नज़र नहीं आया। लाला जी और उनकी धर्म पत्नी पर तो मानो कहर टूट पड़ा। वह तो बेचारी रोती बिलखती हुई भागकर उस उफनती नदी में छलाँग लगाने लगी थी, परन्तु लोगों ने मुश्किल से पकड़कर उसे बचाया। बड़ा ही दर्दनाक हादसा हुआ था साहिब। लोग नदी के किनारे काफी दूर तक ढूंढते रहे, परन्तु रात को कुछ नज़र नहीं आया। फिर सुबह भी तलाश की गई, परन्तु वह बच्चा कहीं भी नहीं मिला। साहिब, लोग कहते हैं कि उस बच्चे का भूत रोज रात को इन खँडहरों में आता है और अजीब-अजीब तरह की आवाजें निकालता हुआ जंगल के अंदर चला जाता है।’

‘अच्छा, महकमे के जो लोग इन क्वाटर्स में रहते थे, उनका क्य हुआ?’ साहब ने पूछा।

                ‘साहिब, पानी मकानों तक आ पहुँचा था। नीचे की तरफ के मकानों का तो सामान भी बह गया था। दो मकान भी पानी की बलि चढ़ गए थे। इसलिए इस जगह को सुरक्षित न मानते हुए महकमे ने सारे स्टाफ को यहाँ से हटा लिया था। तभी से यह मकान खाली पड़े हैं। मकान क्या अब तो सब टूट-फूट चुके हैं। लोग तो यह भी कहते हैं कि लाला दीवान चन्द जी भी अपनी पत्नी के दुःख को सहन नहीं कर पाए और वह महकमे की नौकरी छोड़कर दूर किसी शहर में जाकर बस गए थे, ताकि उनकी धर्म पत्नी यहाँ की सारी यादें भूल जाए।’

‘फिर उसके बाद क्या हुआ?’ साहब ने प्रश्न किया।

                ‘साहिब, मैं तो यहाँ पर रहता हूँ। कभी भी किसी से मुलाकात नहीं हुई। आगे उन लोगों के साथ क्या हुआ, क्या नहीं मुझे कुछ भी मालूम नहीं है।’ रामू काका ने अपनी बात समाप्त की।

                बातों-बातों में आठ बज चुके थे। बाहर घना अंधेरा हो चुका था। आस-पास में जंगली जानवरों की चहल-पहल बढ़ चुकी थी। दूर जंगल में एक शेर बड़ी जोर से दहाड़ा। उसकी गर्जना सुनकर दूसरे जंगली जानवर अपने कुनबे के अन्य जानवरों को संचेत करने के लिए जोर-जोर से आवाजें निकालने लगे। जानवरों और मोरों की आवाजें सुनकर मैडम जाग गई। इधर-उधर देखा तो साहब नज़र नहीं आए। उठकर कमरे से बाहर आई, तो उसे देखकर साहब हँस पड़े। मैडम का गुस्सा भी हँसी में बदल गया। वह बोलीः

‘आपकी महाभारत की कहानी कब खत्म होगी?’

                साहब ने घड़़ी की ओर देखा तो आठ बज चुके थे। मुस्कुराते हुए उठकर कमरे की ओर जाने लगे तो रामू काका पूछने लगाः

‘साहिब, खाने में क्या बनाऊँ?’

‘क्यों मैडम जी? क्या पसंद हैं?’ वह मैडम से पूछने लगे।

‘बातों का हल्वा। मुझे लगता है यह आपको काफी पसंद है।’ मैडम ने हँसते हुए व्यंग्य किया।

साहब चुप कर गए, क्योंकि वार सीधा उन पर ही किया गया था। फिर थोड़ा सोचने के बाद बोलेः

‘मेघा! माई डीयर, मैं सच में तुम्हारा गुनाहगार हूँ। बातें ही कुछ ऐसी शुरू हुईं की खत्म ही नहीं हुई। अब गुस्सा छोड़ो और मेघों की तरह बरसना बंद करो। बताओ क्या खाओगी?’

‘मेरी तो कोई खास पसंद या नापसंद नहीं है। समय भी बहुत हो चुका है। अब ऐसे में ये बेचारा क्या बनाएगा। जो आप उचित समझो कह दीजिए।’ वह कमरे में अंदर जाती हुई बोली।

‘ठीक है, रामू काका आज हमारी पसंद नहीं बल्कि तुम्हारी पसंद ही बनेगी। जो तुम ठीक समझो वही खाना बना दो और हाँ देर बहुत हो चुकी है, ज्यादा कष्ट करने की जरूरत नहीं है। बिल्कुल सादा खाना भी चलेगा।’ कहते हुए वह भी कमरे के अंदर चले गए। अंदर जाकर बैठे तो श्रीमती जी ने प्रश्न कियाः

‘एक बात पूछूँ? बिल्कुल सच बताना होगा।’

‘बोलिए, क्या पूछना चाहती हो?’ वह बोले।

‘आप पिछले जन्म में कहीं टार्जन तो नहीं थे?’

‘क्यों, ऐसी क्या बात है?’ वह मुस्कुराते हुए पूछने लगे।

‘बात है, तभी तो पूछ रही हूँ।’

‘बात का मुझे भी तो पता चलना चाहिए तभी तो कुछ आगे कह पाऊँगा।’

‘देखिए जनाब, बात बिल्कुल साफ और एकदम स्पष्ट है। इस वीरान घने जंगल में आना और रहना कौन पसंद करता है? वह कोई आम इंसान तो हो नहीं सकता। यहाँ तो वही आएगा जो या तो जंगलों में पैदा हुआ हो और या जंगलों में रहता हो। अब ऐसे इंसानों की श्रेणी में तो टार्जन ही आता है। मुझे तो अभी तक यह समझ नहीं आया है कि आप क्या सोच समझकर मुझे यहाँ पर लाए हो? घर से निकले थे तो मैं बहुत खुश थी कि पता नहीं किन सपनों के सुंदर महलों में लिए जा रहे हो। यह तो यहाँ आकर पता चला कि आप मुझे सर्कस के पालतू जानवर नहीं बल्कि सच मे जंगल के राजा के दर्शन कराने के लिए ले आए हो। इससे तो बेहतर था कि हम माँ और पिता जी को मिल आते। शादी के बाद उनके पास रहने का मौका ही नहीं मिला। और तो और मुझे तो अभी तक उनके नामों का भी पता नहीं है।’ मैडम ने मन में आई पूरी बात कह डाली।

जवाब के लिए साहब भी तैयार थे। सुनते ही बोलेः

‘अगर समाज में व्याप्त भेड़ियों में रहना है तो शेरों की तरह जीना सीखना ही पड़ेगा।’

मैडम को इतने सटीक जवाब की अपेक्षा नहीं थी। सुनकर चुप कर गई।

‘साहब किसी भी प्रकार से उसके दिल को ठेस पहुँचाना नहीं चाहते थे, इसलिए थोड़ा मुस्कुराते हुए कहने लगेः

‘तुम सोचती हो कि मैं तुम्हें बिना किसी कारण इस जगह ले आया हूँ तो यह तुम्हारी सोच मिथ्या है। मेरे यहाँ आने का भी कोई मकसद है। शाम को जिन खँडहरों को मैं तुम्हें दिखा रहा था, उन पर मैं कुछ शोध करना चाहता हूँ। मैं अकेला आता तो तुम पीछे से बोर होती। इसलिए सोचा क्यों न हम दोनों साथ-साथ चलें। एक तो तुम शहर की चकाचौंध से दूर जंगल और वीरानों के नजारे अपनी आँखों से देख लोगी, जिन्हें अभी तक तुमने किताबों में ही पढ़ा है और दूसरे साथ-साथ रहकर हम दोनों का दिल भी लगा रहेगा। अब बताओ इसमें क्या बुराई है?’

इतनी बात सुनते ही मैडम का दिल पसीज गया। प्यार का इजहार कैसे करती? अपने हाथ और सिर साहब के सीने पर टिका दिए। प्रेम का यह स्पर्श स्वर्ग के काल्पनिक सुख से भी कहीं अच्छा और सुखदायक लग रहा था। वे काफी देर तक इसी मुद्रा में बैठे रहे। फिर दरवाजे पर हाथ की थाप सुनकर वह एकदम चौंके। थोड़ा संभल कर बैठते हुए बोलेः

‘यस, कम इन।’

रामू काका ने दरवाजा खोला और पानी की थर्मस और दो गिलास रख कर बाहर निकल गया। काका के बाहर निकल जाने के पश्चात् साहब ने बात शुरू करते हुए पूछाः

‘क्या तुम सच में बोर हो रही हो?’

‘जी नहीं, बोरियत किस बात की? जब आप साथ हो तो दुनिया की सभी खुशियाँ मेरे साथ हैं। मैं तो अपने आप को भाग्यशाली मानती हूँ कि आप मुझे हमेशा अपने साथ रखते हो। आप शायद महिला के दिल की बात नहीं जानते। एक पत्नी को सच्चा सुख अपने पति की छाया में ही मिलता है, जिसे पाने के लिए वह दुनिया की सारी खुशियाँ न्यौछावर कर सकती है। सच पूछो तो महिला सुख-सुविधाओं का अभाव तो झेल सकती है, परन्तु पति की बेवफाई को झेल पाना उसके लिए मुश्किल ही नहीं अपितु जीते जी मर जाने के समान होता है।’ मैडम कुछ भावुक होकर बोली।

‘तुम बिल्कुल ठीक कहती हो। पति-पत्नी, दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होते हैं। मेरा भी यह सौभाग्य ही है कि मुझे तुम जैसी पत्नी मिली है। तुम्हारा साथ पाकर मैं अपने अतीत के सूनेपन को भूल चुका हूँ। मुझे तो अब हर समय दो ही चीजें प्रिय लगती हैं, ऑफिस में होता हूँ तो मेरा काम और घर पर होता हूँ तो तुम्हारा प्यार।’ वह अपने दाएं हाथ की अँगुली पत्नी के होंठों पर रखते हुए बोले।

‘देखिए जनाब, मुझे तो आपकी बात में आधा सच और आधा झूठ लगता है।’

‘क्यों?’

‘वह इसलिए कि ऑफिस के काम से प्यार की बात तो बिना किसी संदेह के एकदम सच है। मैं तो कई बार सोचती हूँ कि कही ऑफिस के प्यार की वजह से आप मुझे ही न भूल जाओ। रही मेरे प्यार की बात तो उस पर भी तुम्हारे ऑफिस की ही फाइलों का हक मुझ से ज्यादा है। वे घर पर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती।’

मैडम की यह बात सुनकर साहब चुप कर गए। उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। केवल मुस्कुराकर रह गए। इससे पहले की कुछ सोचकर आगे बोलते, दरवाजे से रामू काका की आवाज आईः

‘साहिब! खाना लगा दूँ?’

‘हाँ लगा दो।’ उन्होंने जवाब दिया।

रामू काका ने खाना लगा दिया। खाना एकदम सादा था, परन्तु बहुत स्वादिष्ट, मानो किसी पाँच सितारा होटल के हैड कुक ने बनाया हो। मैडम अपनी जुबान पर आई बात को रोक न पाई। वह बोलीः

‘काका, तुमने खाना बनाने का क्या कोई कोर्स कर रखा है?’

‘नहीं बीबी जी, यह तो मेरा तीस साल का तजरबा है।’ रामू काका अपनी तारीफ सुनकर ऐसा महसूस कर रहा था मानो अपनी झुकी कमर से आधा सीधा हो गया हो।

खाना खाकर जैसे ही उठे तो रामू काका पूछने लगाः

‘साहिब, सुबह नाश्ते में क्या बनाऊँ?’

‘तुम इतना अच्छा खाना बनाते हो, इसलिए सुबह भी तुम्हारी ही पसंद चलेगी।’

‘और साहिब, चाय कितने बजे लाऊँ?’ रामू काका ने प्रश्न किया।

‘हम सुबह अपने आप बता देंगे। अब तुम आराम करो।’

‘नमस्कार साहिब।’ कहकर रामू काका ने बर्तन उठाए और कमरे से बाहर निकल गया।